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संसद में विमर्श की गरिमा बचाएं

पार्थसारथि थपलियाल

18वीं लोकसभा का प्रथम सत्र नई संसद के लिए निर्वाचित सदस्यों के शपथ ग्रहण के बाद 27 जून 2024 को राष्ट्रपति के अभिभाषण से शुरू हुआ। यह एक परंपरा है। अभिभाषण सरकार की विभिन्न उपलब्धियों का ब्यौरा होता है। अभिभाषण के बाद सदन में उस पर चर्चा होती है। विभिन्न राजनीतिक दलों की संख्या के अनुपात में चर्चा में भाग लेने वाले दलों और उनके वक्ताओं में समय बांटा जाता है। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेई, के.कामराज, रामकृष्ण हेगड़े, वृद्धि चंद जैन, भोला पासवान शास्त्री, आदि वे विपक्षी सांसद थे जो विषय पर बोलने के लिए तैयारी के साथ आते थे। बाद के दौर में भी धारदार बोलने वाले सांसदों में इंद्रजीत गुप्त, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, मीनू मसानी, पीलू मोदी, रवि रे, चंद्रशेखर, मोहन धारिया, सोमनाथ चटर्जी, सुब्रमण्यम स्वामी, शांता कुमार, अर्जुन सिंह, शरद यादव, सुष्मा स्वराज, जसवंत सिंह जसोल, अरुण जेटली, हुकुमदेव यादव आदि प्रखर सांसद रहे।

उन दिनों संसदीय कार्यों में रुचि रखनेवाले लोग दर्शक दीर्घा में बैठने के लिए पास पाने की बड़ी कोशिशें करते थे। बड़ी दिलचस्प बहसें होती थी। मंत्रीगण विशेष तैयारी के साथ संसद में आते थे। पक्ष और विपक्ष के सांसद भी अच्छी तैयारी के साथ उपस्थित होते थे। ऐसा नही अब ऐसे सांसद नही हैं। अब भी उतने ही प्रखर वक्ता अब भी संसद में हैं। निशिकांत दुबे, सुधांशु त्रिवेदी, मनोज झा, मनीष तिवारी, प्रमोद तिवारी, संबित पात्रा, लल्लन सिंह, तेजस्वी सूर्या, मल्लिकार्जुन खड़गे, प्रोफेसर रामपाल यादव, मलूक नागर, हरसिमरत कौर, तेजस्वी सूर्या, कल्याण बनर्जी, भ्रतृहरी मेहताब आदि प्रखर पार्लियामेंटेरियन हैं, जो विषय पर अपनी बात प्रमुखता और गरिमा के साथ रखते हैं।

उन पार्लियामेंट्रीयंस को जिन लोगों ने सुना हो और 18वीं लोक सभा के राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव और वित्तमंत्री द्वारा प्रस्तुत वित्त विधेयक 2024-25 पर चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों के भाषण भी सुन रहे हों तो उन्हें अत्यंत निराशा होनी स्वाभाविक है। संसद एक तरह से राष्ट्रीय पंचायत है ग्राम पंचायत नही। इस लोकसभा के आरंभिक सत्र और पावस सत्र/बजट सत्र के दौरान होड़ ये दिखाई दी कि गिरावट में कौन कितना गिर सकता है। विषय कुछ होता है और बोल कुछ रहे होते हैं। वह नही बोला जाता जो बोला जाना चाहिए। कोई धर्मों को भिड़ा रहा है तो कोई जातियों को। कितनी गलत बात है पहचान बताने और नाम बताने पर एतराज है फिर जातीय जनगणना कैसे होगी। जातीय जनगणना होगी तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जाति का आधार क्या होगा? यह नारा कि “जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी” क्या यह जनसंख्या को बढ़ावा देने का काम नही करेगा। लोक सभा में इससे घटिया क्या कहा जाए कि बजट तैयार करनेवालों में अमुक जाति के कितने लोग थे? फिर सवाल यह भी उठाना चाहिए कि एक परिवार से प्रधानमंत्री कितनी बार बनाना चाहिए? सवाल यह भी उठेगा कि न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति में, भारतीय सेना के अधिकारियों में, कैबिनेट सेक्रेटरी की नियुक्ति में, खुफिया विभाग में, इसरो में, और इस प्रकार के अन्य संगठनों में भी लागू होना चाहिए।

अंग्रेजों ने धार्मिक आधार पर देश का विभाजन करवा दिया। संसद में अनुराग ठाकुर द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर देना उन लोगों के लिए भारी होगा जो सामाजिक तानाबाना नष्ट करने पर आमादा हैं। क्या समाज के पिछड़ने का क्रम स्वाधीनता प्राप्ति से नही देखा जाना चाहिए? क्या समाज का पिछड़ापन आर्थिक आधार पर नही देखा जाना चाहिए? गजब का मंतव्य है। विकसित होते भारत में समाज को पिछड़ा बनाने की होड़ लगी है।

हर मां का सपना होता है कि उसका बेटा जीवन में सफल हो। मनोकामना के रूप में यह ठीक है, लेकिन इस कामना की सफलता के लिए प्रयोग भारत राष्ट्र पर किए जा रहे हों यह राष्ट्र को स्वीकार नही। हिंदू हिंसक होता है, जिन मेजें थपथपाने वाले सदस्यों ने सुना उन्हे अपने…. होने पर चिंतन करना चाहिए। राजनीति में पक्ष विपक्ष चलता है राष्ट्र नीति में नही। जिस संसद में राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सद्भाव पर विमर्श होना चाहिए वहां बजट तैयार करने वाले उन अधिकारियों प्रति हेय भावना को बढ़ावा दिया जा रहा है कि उनमें अमुक अमुक जाति के लोग क्यों नही।

हम देख रहे हैं पिछले 20 वर्षों से कांग्रेस में एक व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाने के लिए राष्ट्र को नुकसान क्यों पहुंचाया जा रहा है। यह भी तो जरूरी है सार्वजनिक जीवन में जो व्यक्ति प्रधानमंत्री बनाने के ख्वाब पाले हो उसके सार्वजनिक जीवन के बारे में जनता को सब कुछ पता होना चाहिए।।

संसद की कार्यवाही देखते हुए उन भारतीय राजपुरूषों का स्मरण होना आवश्यक हो जाता है जिन्होंने संसदीय मर्यादाओं को बढ़ाया। संसदीय विमर्श का इतना गिर जाना राष्ट्र की एकता के लिए गंभीर खतरा है। अंग्रेजों ने यही किया था फूट डालो और राज करो, वही प्रयास संसद में मुखर होता सुनाई दिया। कुछ लोग मेजें थपथपा रहे थे कुछ जाति धर्म पता करने पर अड़े थे, कुछ लोग संसद में जंतर मंतर का दृश्य उपस्थित किए थे। कुछ महिमा गा रहे थे तो कुछ गरिमा गिरा रहे थे। यह विचारणीय है कि संसद की गरिमा को धूल धूसरित होने से कौन बचाए।

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